Saturday 9 November 2013

मेरी नयी कविता......"जीने की कला"




"जीने की कला"

कवि हूँ...!!
इसलिए लोग अपने काम का नहीं समझते...
आशिक हूँ...!!
बताया जब
तो कहा दुनियावी मसीहाओं ने कि
एक तो करेला
ऊपर से नीम चढ़ा...
दिलजला भी हूँ...!!
कहने पर लोगों ने
कनखियों से मुसकुराना भी शुरू कर दिया...
और जब बताया कि
नौकरी भी नहीं है कोई पास में...
दूर तलक उम्मीद भी नहीं कोई...
लोगो ने मुंह फेरना
दूर से ही शुरू कर दिया...
मेरे अंदर का इंसान
इन तमाम आग्रहों-पूर्वाग्रहों-- जोकि आधुनिक जीवन का शिष्टाचार है--
के बीच
हैरान परेशान
अपनी इंसानियत
अपनी हूबहू पहचान
अभी तक खोज रहा है...
बावजूद इस खतरे के
कि कुछ पास हो ना हो
इंसानियत का होना पास में
एक गैर ज़मानती अपराध है...
आईये
निरपराध जीवन जीने का प्रयास करें...

Saturday 17 October 2009

गांधी से मेरा परिचय..


गाँधी जी जैसा रीयल परसन अपने जन्मदिन पर आपको निष्क्रिय कैसे रहने दे सकता है..जितना पढ़्ता जाता हूँ गाँधी जी को उतना ही प्रभावित होता जाता हूँ. गाँधी और मै. मेरे लिये गाँधी जी सम्भवत: सबसे पहले सामने आये दो माध्यमों सेपहला -रूपये की नोट सेदूसरा एक लोकप्रिय भजन- रघुपति राघव राजाराम...फिर पता चला इन्हें बापू भी कहते हैंमोहन भीइन्होने आज़ादी दिलवाई और सत्यअहिंसा का पाठ पढ़ाया. बापू की लाठी और चश्मा एक बिम्ब बनाते रहे. इसमे चरखा बाद में जुड़ गया.पहले जाना कि यह भी एक महापुरूष हैबाकि कई महापुरुषों की तरह. और तो ये उनमे कमजोर ही दिखते हैं. सदा सच बोलते हैं और हाँ पढ़ाई में कोई तीस मारखां नहीं थे. ये बात बहुत राहत पहुँचाती थी. पहला महापुरुष जो संकोची थाअध्ययन में सामान्य था. मतलब ये कि --बचपन में सोचता था --ओह तोमहापुरुष बना जा सकता हैकोई राम या कृष्णजी की तरहपूत के पांव पालने में ही नहीं दिखाने हैं. फिर गाँधी जी का 'हरिश्चंद्र नाटकवाला प्रकरण और फिर उनकी आत्मकथा का पढ़ना.. मोहनदास का झूठ बोलनापिताजी से पत्र लिखकर क्षमा याचना करना. पिता-पुत्र की आँखों से झर-झर मोतियों का झरना. ...प्रसंग अनगिन जाने फिर तो..पर एक खास बात होती गयी. गाँधी जी को जानो तो वो भीतर उतरते जाते हैंउतने ही प्राप्य, tangible हो जाते हैं.

किशोरावस्था में गाँधी जी का मतलब ये हो गया था-'-कोई एक गाल पे झापड़ दे तो दूसरा गाल भी आगे कर दो...
गांधीजी कायर थे और जाने क्या-क्या सुनाउन लोगों के मुँह से जिन्होंने कभी नवजीवन प्रकाशन से छपने वाली २० रूपये वाली बापू की ''सत्य के प्रयोग'' तक नहीं पढ़ी.

आज गाँधी एक सॉफ्टवेयर जैसे लगते हैंजिसमे जैसे जिन्दगी की हर फाईल खुल जाती होसारे वाद-विमर्शों की वीडियो चल जाती हो..हम गाँधी को आजमाते जाते हैं और उनकी प्रासंगिकता पर बहस करते जाते हैं. महामना गाँधी जी की सबसे बड़ी खासियत यही थी कि उन्होने सबके सामने एक आदर्श रखाएक ऐसा आदर्श जो सबके सामने ही प्रयोग करते हुएगलतियाँ सुधारते हुएव्रत-उपवासअनशनयात्रा आदि-आदि करते हुए रचा गयाएक ऐसा आदर्श जो सामान्य मानव मन के लिए अनुकरणीय था.

गाँधी ने सबकोसबके भीतर के गाँधी से मिलवाने की मुहिम चलायी और सफल रहे. गाँधी पर विचार करते हुए किसी प्रकार का एकेडेमिक तनाव नहीं होताक्योंकि गाँधी केवल किताबों में नहीं हैंभाषणों में ही नहीं हैं या फिर विभिन्न आलेखों में ही नहीं हैं. हम गाँधी को अपने किचेन में भी पाते हैं और  अपने बाथरूम में भी गाँधी हमें हाइजीन का पाठ पढाते मिल जाते हैं. दिन की शुरुआत में गाँधी प्रार्थना की शक्ति समझा रहे होते हैंतो रात में 'आत्म-निरीक्षणकी आदत डलवा रहे होते हैं. हो सकता हैगाँधी आपसे नमक का कानून तोड़ने के लिए कह रहे हों और पेट दुखने पर मिटटी का लेप भी स्वयं ही लगा रहे हों. गाँधीइरविन से भी बात कर लेते हैंऔर आपके दादादादीपापामम्मीभाईबहन से भी बात कर लेते हैं. गाँधीवकील को भी समझा रहे होते हैंअध्यापक को भी पढ़ा रहे होते हैं और डॉक्टर को भी हिदायतें दे रहे होते हैं. गाँधी हर जगह मुस्कुरा रहे होते हैं और अपनी स्वीकार्यता सरलता से बना लेते हैं.

गाँधी वहां भी धैर्यवान और शांत हैंजहाँ वे प्रयोग कर रहे हैं या गलतियाँ कर रहे हैं. सब आपके सामने है. गाँधी एक साथ उत्कट हैं और विनम्र हैं. गाँधी लैटिन भाषा का एक्जाम देते हैंआंग्लभाषा में बैरिस्टरी करते हैंपर ठीक सौ साल पहले  'हिंद स्वराजलिखते हैं तो गुजराती  में लिखते हैं. और हाँ, 'हिंद स्वराजमें कोई भाषण या कठिन निबंध नहीं लिखते वरन सामान्य जनों के प्रश्नों का सरल व व्यापक सम्पादकीय उत्तर दे रहे होते हैं.

गाँधी एक साथ संकोची व परम निडर हैं. वो मान लेते हैं कि वे डरपोक हैंफिरोजशाह मेहता की तरह जिरह नहीं कर सकतेपर अफ्रीका में अपनी पगड़ी नहीं उतारतेमोहनदास . मोहन से महात्मा बनने की यात्रा एक क्रमिक सुधारयात्रा  हैसाधारण के असाधारण बन जाने की महागाथा हैजिसका साक्षी हिन्दुस्तान का आख़िरी व्यक्ति है.

मुझे सबसे ज्यादा पसंद हैगाँधी जी का प्रयोगधर्मी होना. जीवन-व्यापर में ऐसी कोई चीज नहीं जिस पर गाँधी प्रयोग करते ना दिख जाते हों. वो आपको मालिश करना सिखा सकते हैबाल काटना बता सकते हैं. अंतःकरण शुद्धि की विधियां बता सकते हैं और तिलहन की फायदेमंद खेती कैसे करेंयह भी बता सकते हैं. गाँधी बच्चों से ठिठोली कर सकते हैं. नोआखाली में उन्माद से जूझ सकते हैं. गाँधी आपको सरल ह्रदय वाला बना सकते हैंजिसमे जरा भी घमंड व कर्त्ताभाव ना होजब वो कहते है कि सबसे गरीब व कमजोर व्यक्ति का स्मरण करो और सोचो कि तुम्हारे इस कदम से उसे क्या फायदा होने वाला है. आपको अपनी लघुता और उपयोगिता दोनों का पता तुंरत ही लगता है.

महामना गाँधी अपना सारा मोह छोड़ सकते हैं. चाहे वो खाने का होचाहे वो सेक्स का होचाहे वो कपड़ों का हो ...आदि-आदि. गाँधीशिक्षा के लिए अपना घर बार छोड़ सकते हैंअपना समाज छोड़ सकते हैं. गाँधी पहला गिरमिटिया बन सकते हैं. गाँधी बाइबिल पढ़ सकते हैं और गीता भीकुरान भी और जेंद अवेस्ता भी. उनके लिए कुछ भी अनछुआ  नहीं है. वो सबके हैं और सब उनके. गाँधी के लिए गैर तो अंग्रेज भी नहीं. उन्हें वेस्ट कल्चर से नहींअंधी आधुनिकता से ऐतराज था. उन्हें मशीन से नहीं पर मैकेनाइजेशन से चिढ़ थी.


......ग्लेशियर पिघलने लगे हैं, धरती गरम हो गयी है, मानवी उन्माद नए चरम पर हैं, तो अब कब सुनोगे बापू को.....बोलो...?

गाँधी थकते नहींचलते जाते हैं. जीवन-पर्यंत चलते जाते हैं. भारत का पहला mass-mobilisation का श्रेय उन्हें प्राप्त है. पहले democratic leader हैं वो क्योकि उनकी अपील common man के लिए थी. उनका उपवासगरीब का भी उपवास था और टाटा-बिड़ला का भी उपवास था. हम गाँधी को प्यार करने लग जाते हैं क्योकि वो अपनी गलतियाँ बताते हुएकमियां जग-जाहिर करते हुए आगेएकदम आगे बढ़ते जाते हैं. गाँधी उन्ही क्षणों में सचेत हैंकि उनको स्वयं का अन्धानुकरण नहीं करवाना है. गांधीवाद जैसी कोई चीज नहीं पनपने देनी है. उन्हें चमत्कार नहीं बनना है..वे आचरण में श्रम की प्रतिष्ठा कर जाते हैं. भारतेंदु हरिश्चंद्र ने  जिन भारतीयों को धीमी रेलगाड़ी का डिब्बा कहा हैउनके सामने युगपुरुष गाँधी एक नियमित,अनुशाषितसयंमित व सक्रिय दिनचर्या का आदर्श रखते हैं.


गाँधी हर पत्र का उत्तर लिखना नहीं भूलतेकागजों के रद्दी से आलपिनों का चुनना नहीं भूलते. अपने साप्ताहिकमासिक पत्रों में किसी भी तरह के मुद्दे को छेड़ना नहीं भूलते. गाँधी नहीं भूलते कुछ भी पर हम भूल जाते हैं सब कुछ. आखिर हमने गाँधी को सिम्बल बना लिया है. टाँक लिया है अपने राष्ट्रिय जीवन पर. गांधीवाद के बाकायदा संसथान बना लिए हैंजहाँ से खादी तैयार होती है और संसद में शोरगुल मचाती है कि नोट की गड्डी अन्दर कैसे आयीकौन लायाकिसके लिए..लाया....?...? उन संस्थानों में चरखा चलता रहता हैखादी की नयी खेप आती रहती  हैशोरगुल मचाने के लिए...

गाँधी अनवरत जिन्दा रहेंगेउनकी प्रार्थना अमर रहेगीकिसी भ्रमित की गोली उन्हें नहीं रोक सकेगी कभी भीक्योंकि उन्होने अपनी जगह आसमान या धरती पर नहीं बनाई थीदीवारों या नोटों पर नहीं बनाई थीउन्होने बनाई थी अपनी जगह समाज के अंतिम आदमी के दिल में..तो वो सदा-सर्वदा मुस्कुराते रहेंगेकेमिकल लोचा करते रहेंगे..उनकी प्रासंगिकता की बार-बार होने वाली बहस भी बेमानी हैक्योंकि वो जीवन-व्यापार से कभी अनुपस्थित ही नहीं होते...हम भ्रमितश्रांत उन्हें खोज नहीं पाते और बहस करने लगते हैं प्रासंगिकता की..
..देर नहीं करनी चाहिए...अब हमें अपने भीतर के गाँधी को पुकारना चाहिए और महामना की आवाज को सुनना चाहिए....ग्लेशियर पिघलने लगे हैंधरती गरम हो गयी हैमानवी उन्माद नए चरम पर हैंतो अब कब सुनोगे बापू को.....बोलो...?                                                                 (श्रीश पाठक 'प्रखर')


(चित्र साभार: गूगल इमेज )

दीया, तुम जलना..

दीवाली पर अभी तुरत लिखी एक छोटी कविता.
जो जीवन देकर उजाला देता है, उससे की मैंने विनती....





दीया, तुम जलना..  
अंतरतम का मालिन्य मिटाना 
विद्युत-स्फूर्त ले आना.  
दीया, तुम जलना.  


जलना तुम मंदिर-मंदिर 
हर गांव नगर में जलना 
ऊंच-नीच का भेद ना करना 
हर चौखट तुम जलना  




बूढ़ी आँखों में तुम जलना 
उलझी रातों में तुम जलना 
अवसाद मिटाना हर चहरे का 
हर आँगन तुम खिलना  
दिया तुम जलना  

सभी ब्लोगर भाइयों को दीवाली की अनगिन शुभकामनायें.......





चित्र साभार: गूगल


Saturday 12 September 2009

People are thinking, watching and talking

People are thinking, watching and talking about them. They are our leaders. We don't have option to like or dislike but we have the mere option to pick them from a political bucket, in which all sorts of people are free to enter in. We can not say that all candidates who are contesting are not able to represent us properly. We have to choose one of them who fulfil the equation of our petty interests, though we are electing them for national Assembly. Not any political party has ever asked to people by any means that what sort of criteria people want to use in seeking their candidates. Intelligentia of society can not escape with its broader responsibility with mere lovely arguements from which all articles of all newspapers are overloaded daily.

Thursday 10 September 2009

tolerating nonsence....yaar

Now,we are obligate to live an unpolitical environment,where political parties and leaders are indulged mainly in denegrating each others views and activities.All political parties are not having issues of political worth;if they have some, then they are not fighting for the essence and to find solutions of the issues but for vindicate themselves though uneffectively.Why we are continuously tolerating apolitic sorts of political activities, it would affect the whole structure of the idea to translate :A free and open society .
we are always cursing the political leaders that they have not political will to tackle some major national problems and crises;but perhaps,we also have not the necessary will at personal level to denegrate wrong things through political means due to some petty reservations in our minds.A person who,once took assistance from a criminal becomes more vulnerable and insecure,likewise;if we will not negate effectively and offer continuous support to wrong persons in politics,then we definitely find ourselves in cobweb of corruption,riots,unemployment ,scarcity,underdevelopment,.....,.....,etc.Being member of civil-society,it demands our active indulgence in the process not our passive bearing or political alienation.Politics is a collective and plural activity;it should never be profession for individuals.....
Regards
Shreesh Pathak

Monday 7 September 2009

चुप्पी की जयंती..

चुप रहकर,
माना
सेहत और इज्ज़त
दोनों बनती है,
पर कभी ये चुप्पी
किसी की जान लेती है |
चुप रहकर
मन
ज़वादेही से 
निजात मिलती है,
पर
ये चुप्पी
खुद से कई सवाल करती है |
चुप रहकर
माना
चित्त को
सुख व शांति मिलती है,
पर
ये चुप्पी
'अमुक की आत्मा को शांति मिले'
का गीत बनती है |
लेकिन मेरी आत्मा
अभी तक अशांत है,
क्योकि ये चुप्पी
अभी तक 
मुझसे आक्रान्त है |
आओ
इस भय को मिटाने हेतु
चौराहे पे
मेरी मूर्ति बिठा दो,
कौवे की बीट
और
कुत्ते की क्षार धार 
दोनों इसे शांति देंगी,
फिर हम
धूम-धाम से
चुप्पी की जयंती मनाएंगे,
लोकतंत्र की जय हो !
महात्मा गाँधी अमर रहें !!
...ravikrishna

क्या आप तैयार हैं???

नमस्कार,
यहाँ इस ब्लॉग पर मैं आप सभी के ज्ञान वर्धन हेतु अपने आस पास की बिखरी कड़ियों को, जिन्हें की आप सामान्यतया सरसरी नज़रों से देखते हुए निकल जाते हैं, प्रस्तुत कर रहा हूँ |
इन जानकारियों का उद्देश्य इतना है की ये केवल प्रतियोगी परीक्षाओं और निबंध के दायरे से निकल कर आम आदमी यानी 'मांगो पीपुल' के बीच तक पहुंचे, और इन बातों को आप कहेंगे वो भी बिलकुल उसी तरह जैसे आजकल आप 'जिन्ना-जसवंत' और 'पाकिस्तान' से लगायत अमेरिका और अपने पास पड़ोस तक की हर बड़ी-
छोटी खबर को कहते हैं | क्योकि मुझे इस बात का भली-भाँती भान है की ब्लॉग की सैर करने वाले आप लोगों की बातों को 'मैंगो पीपुल' जरूर गौर से सुनेगा..और समझेगा | 
बस जरूरत है एक शुरुआत की..तो क्या आप तैयार हैं???


मुझे विश्वास है की आप मुझे निराश नहीं करेंगे |